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Sui | Ramdarash Mishra
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00:03:22
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सूई | रामदरश मिश्रा अभी-अभी लौटी हूँ अपनी जगह परपरिवार के एक पाँव में चुभा हुआ काँटा निकालकरफिर खोंस दी गयी हूँधागे की रील मेंजहाँ पड़ी रहूंगी चुपचापपरिवार की हलचलों में अस्तित्वहीन-सी अदृश्यएकाएक याद आएगी नव गृहिणी को मेरीजब ऑफिस जाता उसका पति झल्लाएगा-अरे, कमीज़ का बटन टूटा हुआ है"गृहिणी हँसती हुई आएगी रसोईघर सेऔर मुझे लेकर बटन टाँकने लगेगीपति सिसकारी भर उठेगा"क्यों क्या हुआ, चुभ गयी निगोड़ी?" गृहिणी पूछेगी।"हाँ चुभ गयी लेकिन सूई नहीं।"दोनों की मुस्कानों के साथ ओठ भी पास आने लगेंगेऔर मैं मुस्कराऊँगी अपने सेतु बन जाने परमैं खुद नंगी पड़ी होती हूँलेकिन मुझे कितनी तृप्ति मिलती हैकि मैं दुनिया का नंगापन ढांपती रहती हूँशिशुओं के लिए झबला बन जाती हूँऔर बच्चों, बड़ों के लिएकुर्ता, कमीज़, टोपी और न जाने क्या-क्याकपड़ों के छोटे-बड़े टुकड़ों को जोड़ती हूँऔर रचना करती रहती हूँ आकारों कीआकारों से छवियों कीछवियों से उत्सवों कीकितना सुख मिलता हैजब फटी हुई गरीब साड़ियों और धोतियों कोबार-बार सीती हूँऔर भरसक नंगा होने से बचाती हूँ देह की लाज कोजब फटन सीने के लायक नहीं रह जातीतो  चुपचाप रोती हूँ अपनी असमर्थता परमैं जाड़ों में बिछ जाती हूँकाँपते शरीरों के ऊपर-नीचे गुदड़ी बनकरऔर उनकी ऊष्मा में अपनी ऊष्मा मिलाती रहती हूँ ।

Sui | Ramdarash Mishra

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