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Tumhari Kavita | Prashant Purohit
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तुम्हारी कविता | प्रशांत पुरोहित तुम्हारी कविता में उसकी काली आँखें थीं-कालिमा किसकी-पुतली की,भँवों की,कोर की,या काजल-घुले आँसुओं की झिलमिलाती झील की?तुम्हारी ग़ज़ल में उसकी घनी ज़ुल्फ़ें थीं—ज़ुल्फ़ें कैसीं-ललाट लहरातीं,कांधे किल्लोलतीं,कमर डोलतीं,या पसीने-पगी पेशानी पे पसरतीं, बट खोलतीं?तुम्हारी नज़्म में उसकी आवाज़ थी -आवाज़ कैसी-गाती हुई,बुलाती हुई, अलसाती हुई,या हाँफती काली आँखों से चुपचाप आती हुई?तुम्हारे छंदों में उसकी पतली कमर थी-कमर कैसी-लहराती आँच-सी,दूज के दो चाँद-सी,नूरो-जमाल-सी, या पसलियों व पेट को जोड़े रखने के असफल प्रयास-सी?तुम्हारी कविता में उसके पाँव थे -पाँव कैसे -महावर-रचे,मख़मल-पगे,बिछुआ-सजे,या जो फटी बिवाई के साथ धरती पकड़कर चले?तुम्हारे गीतों में उसकी गोरी बाँहें थीं-बाँहें कैसीं-हरसिंगार-डाल,वैजयंती-माल,कोई अनंग-जाल, या जो उठीं ऐंठन-भरी कसी मुट्ठियों को संभाल?

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