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Khushi Kaisa Durbhagya | Manglesh Dabral
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Khushi Kaisa Durbhagya | Manglesh Dabral

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खुशी कैसा दुर्भाग्य | मगलेश डबराल जिसने कुछ रचा नहीं समाज मेंउसी का हो चला समाजवही है नियन्ता जो कहता है तोडँगा अभी और भी कुछजो है खूँखार हँसी है उसके पासजो नष्ट कर सकता है उसी का है सम्मानझूठ फ़िलहाल जाना जाता है सच की तरहप्रेम की जगह सिंहासन पर विराजती घृणाबुराई गले मिलती अच्छाई सेमूर्खता तुम सन्तुष्ट हो तुम्हारे चेहरे पर उत्साह है।घूर्तता तुम मज़े में हो अपने विशाल परिवार के साथप्रसन्न है पाखंड कि अभी और भी मुखौटे हैं उसके पासचतुराई कितनी आसानी से खोज लिया तुमने एक चोर दरवाज़ा क्रूरता तुम किस शान से टहलती हो अपनी ख़ूनी पोशाक मेंमनोरोग तुम फैलते जाते हो सेहत के नाम परख़ुशी कैसा दुर्भाग्यतम रहती हो इन सबके साथ।

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