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Pita Ke Ghar Me | Rupam Mishra
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पिता के घर में | रूपम मिश्रापिता क्या मैं तुम्हें याद हूँ!मुझे तो तुम याद रहते होक्योंकि ये हमेशा मुझे याद कराया गयाफासीवाद मुझे कभी किताब से नहीं समझना पड़ापिता के लिए बेटियाँ शरद मेंदेवभूमि से आई प्रवासी चिड़िया थींया बँसवारी वाले खेत में उग आई रंग-बिरंगी मौसमी घासपिता क्या मैं तुम्हें याद हूँ!शुकुल की बेटी हो!ये आखर मेरे साथ चलता रहाजब सबको याद रहा कि मैं तुम्हारी बेटी हूँ तो तुम्हें क्यों नहीं याद रहामाँ को मैं हमेशा याद रहीबल्कि बहत ज़्यादा याद रहीपर पिता को!कभी पिता के घर मेरा जाना होतामाँ बहुत मनुहार से कहतीपिता से मिलने दालान तक नहीं गईजा! चली जा बिटिया, तुम्हें पूछ रहे थेकह रहे थे कि कब आई! मैंने उसे देखा नहीं!मैं बेमन ही भतीजी के संग बैठक तक जाती हूँपिता देखते ही गदगद होकर कहते हैं।अरे कब आई! खड़ी क्यों हो आकर बैठ जाओमैं संकोच से झुकी खड़ी ही रहती हूँपिता पूछते हैं मास्टर साहब (ससुर) कैसे हैं?मैं कहती हूँ ठीक हैं!अच्छा घर में इस समय गाय- भैंस का लगान तो है ना!बेटवा नहीं आया?मैं कहती हूँ नहीं आयादेखो अबकी चना और सरसों ठीक नहीं हैब्लॉक से इंचार्ज साहब ने बीज ही गलत भिजवायापंचायत का कोई काम ठीक नहीं चल रहा है।ये नया ग्रामसेवक अच्छा नहीं हैअब मुझसे वहाँ खड़ा नहीं हुआ जातामैं धीरे से चलकर चिर-परिचित गेंदे के फूलों के पास आकर खड़ी हो जाती हूँपिता अचानक कहते हैं अरे वहाँ क्यों खड़ी हो वहाँ तो धूप है!मैं चुप रहती हूँमाँ कहती हैं अभी मॅँह लाल हो जाएगापिता गर्वमिश्रित प्रसन्नता से कहते हैंऔर क्या धूप और भूख ये कहाँ सह पाती हैमेरी आँखें रंज से बरबस भर आती हैं।मैं चीख कर पूछना चाहती हूँये तुम्हें पता था पिता!पर चुप रहकर खेतों की ओर देखने लगती हूँपिता के खेत-बाग सब लहलहा रहे हैंबूढ़ी बुआ कहती थींदैय्या! इत्ती बिटिया!गाय का चरा वन और बेटी का चरा घर फिर पेनपै तब जाना।बुआ तुम कहाँ हो! देख लो!हमने नहीं चरा तुम्हारे भाई-भतीजों का घरसब खूब जगमग हैइतना उजाला कि ध्यान से देखने पर आँखों में पानी आ जाए।

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