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Vo Ped | Shashiprabha Tiwari
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Vo Ped | Shashiprabha Tiwari

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वो पेड़ | शशिप्रभा तिवारीतुमने घर के आंगन में आम के गाछ को रोपा थातुम उसी के नीचे बैठ कर समय गुज़ारते थे उसकी छांव में  लोगों के सुख दुख सुनते थे उस पेड़ के डाल के पत्ते उसके मंजरउसके टिकोरे उसके कच्चे पक्के फलसभी तुमसे बतियाते थेजब तुम्हारा मन होता अपने हाथ से उठाकर किसी के हाथ में आम रखते कहते इसका स्वाद अनूठा है वह पेड़ किसी को भाता थाकिसी को नहीं भीजैसे तुम कहते थे हर कोई मुझे पसंद करे ज़रूरी तो नहीं पेड़ वहीं खड़ा आज भी तुम्हारी राह देखता है वह भूल गया है कि टूटे पत्ते, डाल, फलदोबारा उसके तने से  नहीं जुड़ सकते केशव! तुम भरी दोपहरी में उस पेड़ को याद दिला दोकि तुम द्वारका से मथुरा की गलियों कोनहीं लौट सकते इस सफर में कदम-कदम आगे ही बढ़ते हैं लौटना और वापस लौटना ज़िन्दगी में नहीं होता उम्र की तरहउसकी गिनती रोज़ बढ़ती जाती है तुम्हारे आंगन का वो पेड़ मुझे मेरी ज़िन्दगी के किस्से याद दिलाता है माधव! क्या करूं?

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